Featured Posts

"टोपी, तस्बीह और वोट बैंक: जब राजनीति रोज़ा-इफ्तार से सवाब की तलाश में निकलती है।

लेखक: ज़मीर आलम

प्रधान संपादक – विधायक दर्पण न्यूज़
📞 8010884848 | 🌐 www.vidhayakdarpan.in | ✉️ vidhayakdarpan@gmail.com


प्रस्तावना
राजनीति के मंच पर किरदार भले ही बदलते रहें, लेकिन स्क्रिप्ट अक्सर वही रहती है—धार्मिक प्रतीकों का दोहन, वोट बैंक की ओर झुकी मुस्कानें और सियासत की तिजारत में ईमानदारी का नामोनिशान तक नहीं। ऐसे में अगर कोई नेता टोपी पहनकर अमीन कहता हुआ इफ्तार की प्लेट सजाता है, तो समझिए चुनाव करीब हैं।


विवरणात्मक व्यंग्य
🤣 "नियत की मैंने आज 2027 इलेक्शन की..!!"
यह महज़ एक जुमला नहीं, बल्कि हमारे दौर की राजनीति का ट्रेलर है। मुंह वोट बैंक की तरफ, आंखें सर्वे रिपोर्टों पर और दिल सत्ता की कुरसी के नीचे दबा पड़ा।

🤣 "रोज़ा इफ्तार पार्टी छोड़ूंगा नहीं.. टोपी पहनूंगा, अमीन भी कहूंगा..!!"
नेता जी के अमल में इबादत कम, अदाकारी ज़्यादा होती है। मज़हबी रस्मों की चाशनी में डूबा हुआ यह दिखावा, असल में मज़हब के साथ सियासी फ्लर्टिंग से ज़्यादा कुछ नहीं। इफ्तार के व्यंजनों में लहज़ा मीठा ज़रूर होता है, पर नीयत में खटास रह जाती है।

🤣 "धक्का कहीं भी दे दूंगा.. नाम रतन नूरा, काम होगा हमेशा अधूरा..!!"
राजनीति के मंच पर कुछ नाम चलते हैं सिर्फ गूंजने के लिए — काम में वो खरे नहीं उतरते। ये 'रतन' नाम के 'नूरा कुश्ती' के खिलाड़ी होते हैं, जिनकी फिक्र कौम के लिए नहीं, बल्कि कैमरे की लाइट और वोट की गिनती के लिए होती है।


राजनीतिक जलसों में इमामों की मौजूदगी — इत्तेहाद या इत्तेफाक़?
पार्लियामेंट स्ट्रीट की मस्जिद में जब सियासी चेहरे 'दीनी गुफ़्तगू' करते हुए नज़र आएं, तो सवाल लाज़मी है — क्या ये इत्तेफाक़ था या इत्तेहाद की साजिश?
सांसद मोहिबुल्लाह नदवी, धर्मेंद्र यादव, डिम्पल यादव और खुद अखिलेश यादव जैसे चेहरे जब मस्जिदों में 'मिल्लत के मसलों' पर बात करें, तो तस्वीर तो बनती है, लेकिन उस तस्वीर के पीछे की पॉलिटिक्स ज़्यादा रंगीन होती है।

#अल्लाह_इनके_नेक_अमल_को_कुबूल_करे — या जनता इन्हें पहचान ले?
हर बार चुनाव के मौसम में धार्मिक स्थलों की रौनक बढ़ जाती है। नेता जी सादगी की चादर ओढ़े, इबादत में मशगूल दिखाई देते हैं। कैमरे के सामने 'अमीन' कहते हैं, लेकिन कैमरे के पीछे उनके अफसर और रणनीतिकार अगला इफ्तार प्लान कर रहे होते हैं।


"जागो ग्राहक जागो" — वोटर ही असली सियासी ग्राहक है
सियासतदान जब टोपी पहनता है, तो समझिए चुनावी मौसम आ चुका है। वोटर को अब तय करना है कि वह धार्मिक दिखावे की सियासत में उलझे या नीतियों के नाम पर सवाल करे।
मुस्लिम वोट बैंक को बार-बार इस्तेमाल करने की यह आदत नयी नहीं है — लेकिन अब वक़्त है कि मिल्लत भी समझे कि उनका इस्तेमाल हो रहा है, इस्तकबाल नहीं।


निष्कर्ष:
राजनीति की इस रिवायती चाल में मज़हब को मोहरा बनाकर वोट की बिसात बिछाई जाती है। सियासत जब सजदे में जाती है, तो मंसूबे कुछ और होते हैं।
अब वक्त है कि कौम सवाल करे — टोपी कब उतरेगी? कब असल मुद्दों की बात होगी? कब सियासत सच्चे काम की टोपी पहनेगी?


#विधायक_दर्पण | #राजनीति_और_मजहब | #टोपी_का_सियासी_इस्तेमाल | #अखिलेश_यादव | #मुस्लिम_वोट_बैंक | #SatireWithSense

No comments:

Post a Comment