स्रोत: "विधायक दर्पण" राष्ट्रीय राजनैतिक समाचार पत्रिका
📍 स्थान: बाग़पत, उत्तर प्रदेश
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संघर्ष, ज़रूरतें और देश की राजनीति
जब हम भारत के निर्माण, उसकी आत्मा और अर्थव्यवस्था की रीढ़ पर नज़र डालते हैं, तो एक सच बिना लागलपेट के सामने आता है — यह देश जवानों, किसानों और मजदूरों के दम पर खड़ा है। लेकिन क्या आज वही तीनों वर्ग सबसे ज़्यादा उपेक्षित, उपहासित और इस्तेमाल किए गए तबके नहीं बन गए?आज़ादी के बाद अधिकार नहीं, सिर्फ़ वादे मिले
जिस मिट्टी ने गुलामी की जंजीरें तोड़ीं, उसी मिट्टी में जब किसानों का खून बहा, तो सरकारें चुप रहीं।मेहनतकशों की हड्डियों से खड़ी की गई फैक्ट्रियों में सिर्फ मुनाफा बंटा, हक़ नहीं।
जवानों की ज़रूरतों, सुविधाओं और सम्मान की आवाज़ आज भी कहीं खोई हुई है।
राजनीति में ‘किसान’ सबसे बड़ा कारोबार बन चुका है
कभी जिस "किसान" को अन्नदाता कहा गया, अब वही किसान राजनीतिक दलों का प्रचार-प्रसार का हथियार बन चुका है।
हर दल किसानों के नाम पर वोट मांगता है, नारे लगाता है, झंडे लहराता है... लेकिन सत्ता मिलते ही किसानों की आवाज़ को राजनीतिक गोदामों में बंद कर दिया जाता है।
किसानों की बात सिर्फ तब तक होती है, जब तक सत्ता दूर होती है। सत्ता मिलते ही यह आवाज़ गूंगी हो जाती है।
🎯 कड़वा सच: आंदोलन सत्ता की सीढ़ी बन चुके हैं
उदाहरण के तौर पर राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष जयंत चौधरी को ही लें।जो दिल्ली की सड़कों पर किसानों के साथ खड़े थे, अब सत्ता में भागीदारी मिलते ही वही आवाज़ उनके गले और ज़ुबान से लापता हो गई।
कहीं कोई इंकलाब नहीं रहा। अब तो लगता है कि
आंदोलन महज़ सत्ता तक पहुंचने की एक रणनीति थे, न कि जनता के हक की लड़ाई।
❌ अब कोई आंदोलन नहीं होता... क्योंकि अब कोई नेता नहीं रहा
- छात्र बेरोज़गारी से परेशान हैं — कोई आंदोलन नहीं।
- किसान महंगाई और कर्ज़ से टूट रहा है — कोई आवाज़ नहीं।
- मजदूर और कामगार बदतर हालात में जी रहे हैं — कोई खड़ा नहीं हो रहा।
देश में अब हक़ की बात करने वाला कोई नेता नहीं, सिर्फ़ पैकेज्ड वक्ता हैं जो टीवी डिबेट और चुनावी मंचों के नायक हैं, जमीनी हक़ीक़त से कोसों दूर।
📉 विपक्ष भी अब "विपक्ष" नहीं रहा
कभी संसद की दीवारें जिन आवाज़ों से गूंजती थीं — अब वहां सिर्फ़ तंज, ठहाके और तू-तू मैं-मैं होती है।
विपक्ष की भूमिका अब सिर्फ ट्वीट तक सीमित रह गई है।
कोई संघर्ष, कोई सड़क, कोई संसद में रुखाई — कुछ नहीं बचा।
💔 सियासत अब तिजारत है
अब राजनीति सेवा नहीं, सौदा बन गई है।
सत्ता अब मिशन नहीं, मार्केटिंग है।
सच्चाई अब "डाटा" है, जो मनचाहे ढंग से पेश किया जा सकता है।
झूठ और लूट अब हाकिमों की ज़रूरत बन गई है।
🤔 तो सवाल वही है... देश का यारों क्या होगा?
क्या हम अब भी मौन रहेंगे?क्या किसान, जवान, मजदूर, छात्र — सिर्फ वोटर रहेंगे?
क्या राजनीति यूँ ही तिजारत बनी रहेगी?
क्या सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने वाले रास्ते, संघर्ष से होकर गुजरते रहेंगे — और फिर उसी संघर्ष को रौंद देंगे?
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