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महाराष्ट्र की राजनीति, दीपक तले अंधेरा


महाराष्ट्र की अद्भुत और विचित्र राजनीतिक आंकलन करते समय, हमें न्यूटन के सिद्धांत हर क्रिया के बराबर और विपरीत, प्रतिक्रिया होती है जिसे ऐतिहासिक दृष्टि से क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति भी कहा जाता है, दिमाग में रखना होगा। मनुस्मृति आधारित वर्ण व्यवस्था 18वीं सदी में अंग्रेजों की वैज्ञानिक सोच और मानवीय व्यवहार के कारण कुछ कमजोर पड़ने लगीं, तभी ज्योतिबा फुले (जन्म 11अप्रिल 1827 ----मृत्यु 28 नवम्बर 1890) एक छूत शूद्र समाज का समृद्ध जमींदार, ब्राह्मणों के विरोध के बावजूद, पढ़ाई कर, ज्ञान हासिल कर सम्मानित पुरुष होने का दर्जा हासिल कर लेता है। नतीजा, एक ब्राह्मण सहपाठी अपनी शादी में ज्योतिबा फुले को आमंत्रित करता है और वे बारात के साथ- साथ चलने लगते हैं। ब्राह्मणों को बड़ा नागवार गुजरा और बिरोध के कारण फुले को अपमानित होकर बीच रास्ते से लौटना पड़ा। लौटते समय अपमान से इतना व्यथित हुए कि, दुःखी होकर एक पेड़ की छांव में बैठकर सोच ही रहे थे कि---

उसी समय, गले में मटकी और पीछे झाड़ू बांधे कुछ अछूत शूद्र उनकी खिल्ली उड़ाते हुए, हंसते हुए उनके सामने से गुजर गये। उनके इस व्यवहार से उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और सोचने लगें कि, मेरा इतना छोटा सा अपमान हुआ और मैं व्यथित हो गया। इनका इतना बड़ा अपमान हो रहा है, फिर भी इनको कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है। उसी दिन से उन्हें यह एहसास हुआ कि, हिन्दू धर्म व्यवस्था ने, इनके पैदा होते ही, इनके मान सम्मान और स्वाभिमान के ज़मीर को  ख़त्म कर दिया है, इसलिए इनके लिए मान- अपमान कोई मायने नहीं रखता है। उसी दिन से उनके दिलो-दिमाग में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ नफ़रत पैदा होने लगती है। परिवार के विरोध के बावजूद, अपने मकान के दरवाजे खोलते हुए अछूतों को भी अपने कूआं से पानी लेने की इजाजत देते हैं। फूले जी के इस व्यवहार से हिन्दू धर्म भ्रष्ट हो गया और ब्राह्मण नाराज़ हो गये। प्रतिक्रिया में, फूले जी के अंदर भी ब्राह्मणों के प्रति नफ़रत और बढ़ गई और बगावत पर उतर आए। बता देना उचित समझता हूं कि इतना क्रूर, निर्दई, अमानवीय दन्डात्मक प्रतिबंध, गले में मटकी, और कमर में झाड़ू, पेशवाई ब्राह्मणों के द्वारा सिर्फ महार जाति पर ही लगाया गया था। इसी की प्रतिक्रिया ने फूले जी को झकझोर कर रख दिया था। परिणाम स्वरुप फूले दम्पति ने अछूतों के उद्धार के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया और इसकी गूंज पूरे महाराष्ट्र में सुनाई देने लगी।

इसका परिणाम यह हुआ कि इनके बाद इस सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई को कोल्हापुर के राजर्षि शाहू जी महाराज (जन्म-26 जून 1874--मृत्यू-06 1922) ने चालू रखा और ब्राह्मणों के बिरोध के बावजूद, हिन्दू वर्ण व्यवस्था को नकारते हुए, छुआछूत मिटाते हुए, अपने शासन प्रशासन में शूद्रों को 50% रिजर्वेशन दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि, शाहूजी के सहयोग व प्रेरणा से सबसे निचले पायदान पर रहने वाले अछूत  महार जाति के बाबा साहेब आंबेडकर (जन्म-14 अप्रैल1891--मृत्यु-6 दिसंबर 1956) ब्राह्मणों के अपमान की क्रिया के विपरित प्रतिक्रिया से विश्व-विख्यात विद्वान बन गये। बाबा साहेब इन दोनों पिछड़ी जाति के महापुरुषों को अपना गुरु मानते हुए, उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देते हुए, ब्राह्मणों के विरोध के बावजूद SC ST OBC को संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया। ब्राह्मण और भंगी को सामाजिक दृष्टि से बराबरी का दर्जा देते हुए, समता, समानता और बन्धुत्व रुपी संविधान दिया। महाराष्ट्र की सामाजिक पृष्ठभूमि यह रही है कि, हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न है। यहां सिर्फ़ दो ही वर्ण हैं, ब्राह्मण और शूद्र, क्षत्रिय और वैश्य नदारत है। स्वाभाविक हैं, जब जगह खाली है तो, कोई भी जगह लेने का दावा करता रहता है। कुनबी (शाहूजी महाराज वंशज, माली (फुले वंशज) शिवाजी महाराज के साथ यादव वंशज भी पाया जाता है। ज़मीन्दारी इन्हीं लोगों के नाम से जानी जाती है, जिसे मराठा कहते हैं, कुछ लोग अपने आपको क्षत्रिय मानते हैं,

लेकिन इतिहास में दर्ज है कि इन्हें ब्राह्मणों ने कभी क्षत्रिय न मानते हुए शूद्र ही माना है और उनके साथ नीचता का दुर्व्यवहार भी किया है। यहां के ब्राह्मणों का शूद्रों पर अमानवीय व्यवहार, (यहां तक कि मराठा राजाओं पर भी) इस पृष्ठभूमि को देखते हुए, यह सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि, काश्मीर, आसाम और तामिलनाडु की तरह 3% ब्राह्मणों के खिलाफ आन्दोलन क्यों नहीं शुरू हुआ? कारणों का अध्ययन करना उचित समझता हूं। बाबा साहेब ज़िन्दगी भर शूद्र रहते हुए, हिन्दू धर्म को सुधारने की कोशिश करते रहे, असफल होते हुए, अंत में आजिज आकर, 1935 के येवला कन्फरेन्स में दुःखी होकर मजबूरन यह कहना पड़ा कि, *दुर्भाग्य से मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, यह मेरे बस में नहीं था, लेकिन मैं हिन्दू रहकर मरूंगा नहीं*! बाबा साहेब की इस क्रिया का, शूद्रों पर तो कोई खास फर्क नहीं पड़ा, लेकिन ब्राह्मणों में बौखलाहट के साथ जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई। ब्राह्मणों ने जाति शुद्धिकरण मिशन के माध्यम से, महार जाति को छोड़कर, ब्राह्मण जिन जातियों के परछाई से परहेज़ करते थे, अब उन्हीं जातियों के पास जाकर, हाथ जोड़कर, इज्जत देते हुए, यह कहना शुरू किया कि, अम्बेडकर तुम हिन्दुओं को मलिच्छ बनाने की बात कर रहा है, अनर्गल हिंदू धर्म रक्षा की बात करते हुए, महार जाति और बाबा साहेब के खिलाफ दूसरी अछूत जातियों में जबरदस्त नफरत फ़ैलाने में सफल भी हो गये। उस समय सिर्फ महार जाति के लोग बाबा साहेब की बातों को मानकर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिए। महार के अलावा बचीं तीन मुख्य अछूत जातियां चमार, मातंग और ढोर, हिन्दू धर्म की चासनी पीते हुए स्वर्ग महसूस करने लगे।

इसी तरह पिछड़ी जातियों को भी बर्गला कर, उनके साथ रोटी- बेटी का थोडा़ बहुत रिस्ता भी बनाकर पक्का हिन्दू बनाकर अपने साथ रखने में सफल हो गए। इन जातियों को धर्म की अफीम खिलाकर, हिन्दू और बौद्ध में दुश्मनी की इतनी बड़ी दरार पैदा कर दी है कि,आज भी पटने को तैयार नहीं है।ब्राह्मणों की शातिर बुद्धि का कमाल देखना है तो, पूरे भारत में महाराष्ट्र एक नमूना है। बाबा साहेब की क्रिया के विपरीत, प्रतिक्रिया में सभी जातियों को महिमा मंडित किया गया। पता नहीं कहां कहां से ढूढ़कर, शूद्रों की सभी जातियों में मनगढ़ंत कहानियां लिखकर एक-एक महापुरुष पैदा किया, फिर भगवान तक का दर्जा दिला दिया और उन सभी को बाबा साहेब अम्बेडकर से महान बताकर, उन सभी जातियों को, अपनी अपनी जाति के महापुरुषों का अनुवाई बना दिया। इस क्रम में शूद्रों की हर जाति के एक-एक महापुरुष या भगवान पैदा किए गए है,

महापुरुष बनाना उतना खतरनाक नहीं था, जितना कि बाबा साहेब से उन सभी को बड़ा साबित करा देना। जैसे चमार के लिए, संत रविदास जी को। मातंग के लिए, लहू जी को। ढोर के लिए, ककैया जी को। इसी तरह सभी पिछड़ी जातियों में भी पैदा किए गए हैं। सभी अपनी अपनी जाति के महापुरुषों की जयंती मनाते समय एक दूसरे में अतिक्रमण भी नहीं करते है। सब अपना अपना मनाते हैं। बेचारे महार सिर्फ बौद्ध बनकर अकेले बाबा साहेब को लेकर चल रहे हैं। यही नहीं, जय भीम की प्रतिक्रिया में, जय रोहिदास, जय लहू, जय ककैया, जय मल्हार, जय सेवा लाल, जय शिवा जी --- आदि, इस तरह सभी जातियों के सम्बोधन मिल जाएंगे, यदि नहीं है तो पैदा कर लिए जाते हैं। 1982 में कांशीराम जी के बामसेफ ज्वाइन करने के बाद पाया कि, मिशन में 95% तक बुद्धिष्ट लोग ही हैं और वे लोग भी सिर्फ बुद्धिष्ट को ही प्रशिक्षण दे रहें हैं। कुछ मुस्लिम और उत्तर भारतीय शूद्र मिल जाते थे। दूसरों के यहा जाने या उन्हें लाने की कोई कोशिश भी नहीं करता था तो, बहुजन बनने का कोई सवाल ही नहीं बनता था ? कांशीराम जी चमार होते हुए, जय भीम सम्वोधन करते थे। इसी कारण यहां चमारों के नेता स्वीकार नहीं किए गए। बहुजन मिशन होने के कारण यह सवाल मुझे बार-बार उद्वेलित करते रहते थे।

बहुत ही कटु और विचित्र अनुभव देखने को मिलता रहता था। कुछ देना उचित समझता हूं। करीब 88-89 का समय रहा होगा। डाक्टर प्रितिश जलगावकर (MBBS) मातंग समाज के बहुजन समाज पार्टी से जुड़ गए थे। एक बार उन्ही के माध्यम से मुझे भी मातंग समाज की दादर की एक मिटिंग में जाने का मौका मिला। मुझे बोलने का तो सवाल ही नहीं था, लेकिन जब स्टेज से भाषण देने के बाद, डाक्टर साहब ने जय भीम  सम्बोधन कर दिया, अब क्या? पूरे हाल में हंगामा खड़ा हो गया। मातंग समाज का अध्यक्ष उनके हाथ से माइक छीनते हुए, उन्हें धक्के देते हुए मंच से उतार दिया और गुस्से में टेबल को पीटते हुए, जय लहू, जय लहू- --चिल्लाने लगा। मर जाऊंगा, लेकिन जय भीम कभी नहीं बोलूंगा, नहीं बोलूंगा -- मेरे सामने ऐसी विचित्र पहली घटना थी, उस समय डर तो मैं भी गया। लेकिन जय लहू सम्बोधन के साथ, थोड़ी समाज में घुसपैठ मैंने कर ली। कुछ महीनों बाद, उसी अध्यक्ष ने, अपने बच्चे के जन्म दिवस पर मुझे आमंत्रित किया और बोलने का मौका दिया। आधे घंटे के भाषण में पूरा फोकस जय भीम विषय पर ही था। वही अध्यक्ष, उसी समय उस दिन के व्यवहार के लिए मुझ से माफी भी मांगी और जय भीम भी बोला। मैंने महसूस किया कि, एक दूसरी जातियों के बीच सम्वाद की कमी से आपसी मनमुटाव व दूरियां बढ़ी हुई है। उसी दिन मुझे अपने आप में विश्वास जगा  और बहुजन समाज में प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया।

धीरे धीरे मैंने अपने तरीके से, बौद्धमय भारत बनाने के प्रशिक्षण के  विपरित, सिर्फ हिन्दू धर्म के पाखंड और अंधविश्वास पर प्रशिक्षण देना शुरू किया।  डिमांड सभी समाज में होने लगी। कुछ तथाकथित पहले से प्रशिक्षण देने वाले बामसेफियो को नागवार गुजरने लगा। मेरे तय प्रशिक्षण को कैंसिल करवाने या खुद हमसे पहले पहुंचकर प्रशिक्षण शुरू कर देने और अन्त तक चिपके रहने, तथा मुझे थोड़ा भी परिचय का भी, मौका न देना असहज होने लगा था। क्योंकि मैं स्थानीय नहीं था, टकराव से बचना भी चाहता था , इसलिए, धीरे-धीरे खुद ही प्रशिक्षण देना छोड़ दिया। विचारों और मिशन का नुक़सान देखकर कयी बार सीनियर से टकराव भी होता रहा, लेकिन मिशन नहीं छोड़ा। मैंने देखा कि सभी नेताओं में मिशन की सफलता से ज्यादा, खुद के वर्चश्व को बनाए रखने की चिंता ज्यादा रहती थी। लोगों में इमानदारी और त्याग की भावना बहुत कम दिखाई देती थी। कमोवेश पूरे देश में बामसेफ के टुकड़े होने और मिशन फेल होने का यही मुख्य कारण भी रहा होगा। अभी एक साल पहले, एक अधिकारी से मेरी किताब *गर्व से कहो हम शूद्र हैं। 

से सम्पर्क होने के कारण, मुझे अपने समाज के सालाना अधिवेशन में बुला लिया। डोइफोडे़ हित वर्धक मंडल, बैनर पर उनकी जाति की कुलदेवी के साथ साथ, संत रोहिदास और बाबा साहेब की फोटो लगी थी। वहीं पता लगाने पर मालूम पड़ा कि चमार जाति की बारह उप जातियों में, यह एक मोची जाति है। मैं मुख्य वक्ता भी था। समाज की बात करने के बाद ज्योही बाबा साहेब की बात शुरू किया, ब्यवधान शुरू हो गया, पब्लिक से कुछ तालियां भी बज रही थी, इसलिए भाषण जारी भी रखा। लेकिन आप को कत्तई विश्वास नहीं होगा कि, जिसने मुझे गेस्ट के रूप में बुलाया था, उसने ही माइक तक बन्द कर दिया। बाबा साहेब की बैनर पर फोटो लगे होने पर, इस अभद्र व्यवहार के लिए लोगों से सवाल उठाया, तो लोगों ने कहा कि हम लोगों ने पहली बार बाबा साहेब के फोटो को बैनर में जगह दी है। इसी तरह बंजारा समाज की एक मीटिंग में भी अनुभव किया। अच्छे पदों पर, पढ़े लिखे लोगों के मुख से सुना, हमारी संस्कृति और सभ्यता हिन्दू धर्म की सबसे पुरानी और सबसे अच्छी है, हर कीमत पर इस हिन्दू धर्म की धरोहर को बचा कर रखना है। उनके भी जाति का कोई एक धर्मगुरु वहां था और सभी लोग उसके पैर छूते और आशीर्वाद लेते थे। और सम्बोधन में, एक दूसरे से "जय सेवा लाल" बोलते थे। एक बार 1989 में मानखूर्द में एक मोची की दुकान पर हिन्दू देवी देवताओं का फोटो देखकर, अनायास ही पूछ लिया और कहा कि उत्तर प्रदेश में मोची अपनी दुकान में बाबा साहेब की फोटो लगाता है और आप यहां क्यो नही? सपाट ज़बाब था, ए हमारे भगवान हैं।

हमारी जिज्ञासा बढ़ती गई, एक सवाल और पूछ लिया? आप बाबा साहेब और गांधी जी में किसको बड़ा मानते हो। बिना झिझके तुरंत जबाव, बाबा साहेब तो शूट व टाई पहनकर अंग्रेजों की दलाली करते थे, गांधी जी हमलोगो की बस्ती में रहकर दलितों की सेवा करते थे। यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया! दूसरे दिन ही उस समय के बसपा के महासचिव डाक्टर सुरेश माने जी से पूछ लिया कि, यह आप के राज्य में, मैं क्या सुन रहा हूं,? उनका कहना था, उसका दोष नहीं है, जो उसको बताया गया है, वही आप से कह रहा है। ब्राह्मणों ने धर्म की चासनी चटाकर हिन्दू दलित और बौद्ध दलित में,  इतनी दुश्मनी खड़ी कर दी कि, अज्ञानता वश, एक भाई, अपने ही दूसरे भाई का दुश्मन बना हुआ है। बता दूं कि, उत्तर भारत में जो चमड़े का काम मरे हुए पशु को उठाने से लेकर जूता बनाने तक सिर्फ एक ही जाति चमार करता है, उसी काम को महाराष्ट्र में पेशवाई ब्राह्मणों ने एक ही बाप के चार बेटों को, चार भागों में काम बांटकर एक दूसरे से ऊंच-नीच बनाकर, क्रमश: महार, ढोर, मातंग और चमार बना दिया। दलितों में चमार अपने को ब्राह्मण समझता है। सिर्फ पका हुआ चमडा़ ही हाथ लगाता है। इसलिए जूते बनाने के व्यवसाय से जुड़ गए और अपने ही भाई महार को जो जूते बनाने के लिए, उन्हें रा मेटिरियल देता था, उसी को छूने से परहेज़ करता था। स्वाभाविक था, अछूतों में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण, महार सबसे ज्यादा प्रताड़ित हुवा और बाबा साहेब की बात मानकर, पुस्तैनी धन्धो को लात मारकर, नौकरी धन्धे करने और पढ़ने-पढ़ाने के लिए शहरों की ओर कूच कर गए। बौद्ध बनकर आज, हर क्षेत्र में महाराष्ट्र में ब्राह्मणों के बाद दूसरे स्थान पर है और वहीं हिन्दू दलित - चमार, मातंग और ढोर, शुद्ध हिन्दू बनकर, धर्म की धरोहर बचाने के लिए, बौद्ध धर्म से लड़ने के लिए सबसे आगे रहता है।

आज भी हिन्दू दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। राजनीतिक रूप से हिन्दू होने के नाते, जहां जिसको फायदा दिखा वहीं चले जाते हैं। हर जाति के लोग सभी राजनीतिक पार्टियों में मिल जाएंगे। कोई सिद्धांत नहीं है। सभी पिछड़ी जातियों की भी कमोवेश यही हालात हैं। प्रमाण भी आप के सामने है, शुरुआती, महाराष्ट्र का कट्टर अम्बेडकरवादी बड़ा नेता, दिल्ली में, आज जय भीम छोड़कर, जय श्री राम बोलता है और उसका स्वागत भी यहां होता है। समाज में क्या संदेश ए लोग देना चाहते है। यहां के आदिवासियो की हालत सबसे खराब है। शिक्षा के अभाव में, अज्ञानता के कारण, आर्थिक सरकारी सुविधाएं भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं।

यहां तक कि आदिवासियों को अपने आदिवासी जाति की वैलिडिटी (जाति प्रमाण-पत्र का सत्यापन) कराने के लिए दलालों को लाख, डेढ़ लाख देना पड़ता है। 70 साल की उपलब्धियों के बावजूद, मुम्बई से महज 60 किलोमीटर दूर पालघर जिले (आदिवासी बहुल) में कुछ लोग जंगल की लकड़ी बिनकर जीवन बिताने को मजबूर हैं और यही नहीं, सामाजिक ज्ञान के तौर पर बहुतों को बाबा साहेब का नाम तक नहीं मालूम है। जब कि सभी बामसेफी और मूलनिवासी के जनक यहीं से पैदा हुए हैं। 40 सालों से आदिवासियों में ही मूलनिवासी की भावना नहीं पैदा कर पाएं है। संछेप में कहूं तो, महाराष्ट्र की जातियों में अब छुआछूत की भावना कम हो गई है, जातियों में आपस में शादी विवाह (लव-मैरिज) करने का उतना प्रतिबंध नहीं है। हर जाति का खुद का अपना साम्राज्य है। जाति के लीडर के अधीनता और उसकी बातों की अहमियत सबसे ज्यादा होती है। वहीं राजनीतिक सौदेबाजी भी करता है।

सभी जातियों की रजिस्ट्रर्ड संस्थाएं है। करीब करीब सभी के आफिस के साथ-साथ हाल भी सरकार के सहयोग से मिला हुआ है। सभी के अपने अपने मैरिज ब्यूरो भी खुले हुए हैं। हिन्दू धर्म के सभी त्योहारों और भगवानों में अटूट श्रद्धा है। सबसे बड़ी बात कि, सामाजिक और राजनीतिक रूप से एक दूसरे जाति में किसी तरह का अतिक्रमण नहीं है। आपस की एक दूसरे की जातियों में भाई-चारा की अपेक्षा, बाहरी लोगों के साथ अच्छा व्यवहार रहता है, यह एक मुम्बई वासियों के लिए सुखद बात है, यही गुण कुछ नेताओं को बुरा लगता है। ज़्यादातर लीडरशिप हर जाति की मराठा लोगों के पास है और ये लोग भी ब्राह्मणवादी मानसिकता का ही पालन करते हैं। एक अनुभव, 89-90 के आसपास तक शिव जयंती के समय मुम्बई में चारों तरफ एक बैनर देखने को मिलता था,

गो- ब्राह्मण प्रतिपालक शिवाजी महाराज की जय* सभी मराठा ऐसा ही जय- जयकार करते रहते थे। लगता है अब कुछ समझदारी आ गयी है। हिंदू धर्म के पाखंड और अंधविश्वास की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि अंबेडकरी मिशन को इन जातियों में आसानी से सेंध लगाना बहुत मुश्किल है। फुले-साहू-अंम्बेडकरी क्रान्तिकारी मिशन यहीं से पैदा होकर पूरे देश में अलख जगाने में सफल हो गया है। यहां के लिए यह कहावत चरितार्थ होती है-- दीपक तले अंधेरा, कांशीराम जी के यहां असफल होने का कुछ हद तक यही कारण भी रहा होगा। यदि आक्रामक रुख लेकर बड़े पैमाने पर, यदि  मिशन ,गर्व से कहो हम शूद्र हैं। के द्वारा, यहां की जातियों में व्याप्त अंधविश्वास और पाखंड पर प्रहार किया जाए, इनके अंदर संवैधानिक अधिकार और ब्राह्मण से उच्च होने का स्वाभिमान जगाया जाय, तब हो सकता है, सभी शूद्रो की जातियों में आपसी भाई-चारा पैदा हो जाय। इसके बाद बैकडोर से अम्बेडकर मिशन चलाया जाय तो, कुछ हद तक सफलता मिल सकती है। यहां के कुछ लोगों की मुझे इस तरह की सलाह भी है। अन्यथा फिलहाल मुस्किल है। समीक्षा संछेप में, समाज हित में, स्वस्थ भावना से और अनुभव के आधार पर  किया हूं, किसी को कुछ बुरा लगे तो मांफी चाहता हूं। हमारे इस लेख पर आप सभी का तहे दिल से सुझाव का स्वागत है। यदि पसंद आए तो, इसे मराठी में ट्रांस्लेट कर प्रचारित करने की भी उम्मीद करता हूं। धन्यवाद!गर्व से कहो हम शूद्र हैं, शूद्र एकता मंच,आप का समान दर्द का हमदर्द साथी,शूद्र शिवशंकर सिंह यादव, मो०- 7756816035,9869075576

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