*वो ज़माना और था ..*😌
*कि जब पड़ोस के घर बेटी पीहर आती थी तो सारे मौहल्ले में रौनक होती थी।*
*कि जब गेंहूँ साफ करना किटी पार्टी सा हुआ करता था ,*
*कि जब ब्याह में मेहमानों को ठहराने के लिए होटल नहीं लिए जाते थे,*
*पड़ोसियों के घर उनके बिस्तर लगाए जाते थे।*
*वो ज़माना और था...*😌
*कि जब छतों पर किसके पापड़ और आलू चिप्स सूख रहें है बताना मुश्किल था।*
*कि जब हर रोज़ दरवाजे पर लगा लेटर बॉक्स टटोला जाता था।*
*कि जब डाकिये का अपने घर की तरफ रुख मन मे उत्सुकता भर देता था ।*
*वो ज़माना और था...*😌
*कि जब रिश्तेदारों का आना,*
*घर को त्योहार सा कर जाता था।*
*कि जब आठ मकान आगे रहने वाली माताजी हर तीसरे दिन तोरई भेज देती थीं,*
*और हमारा बचपन कहता था , कुछ अच्छा नहीं उगा सकती थीं ये।*
*वो ज़माना और था...*😌
*कि जब मौहल्ले के सारे बच्चे हर शाम हमारे घर ॐ जय जगदीश हरे गाते .......*
*और फिर हम उनके घर णमोकार मंत्र गाते ।*
*कि जब बच्चे के हर जन्मदिन पर महिलाएं बधाईयाँ गाती थीं......और बच्चा गले मे फूलों की माला लटकाए अपने को शहंशाह समझता था।*
*कि जब भुआ और मामा जाते समय जबरन हमारे हाथों में पैसे पकड़ाते थे,*
*और बड़े आपस मे मना करने और देने की बहस में एक दूसरे को अपनी सौगन्ध दिया करते थे।*
*वो ज़माना और था ...*😌
*कि जब शादियों में स्कूल के लिए खरीदे काले नए चमचमाते जूते पहनना किसी शान से कम नहीं हुआ करता था।*
*कि जब छुट्टियों में हिल स्टेशन नहीं मामा के घर जाया करते थे....और अगले साल तक के लिए यादों का पिटारा भर के लाते थे।*
*कि जब स्कूलों में शिक्षक हमारे गुण नहीं हमारी कमियां बताया करते थे।*
*वो ज़माना और था..*😌
*कि जब शादी के निमंत्रण के साथ पीले चावल आया करते थे।*
*कि जब बिना हाथ धोये मटकी छूने की इज़ाज़त नहीं थी।*
*वो ज़माना और था....*😌
*कि जब गर्मियों की शामों को छतों पर छिड़काव करना जरूरी हुआ करता था।*
*कि जब सर्दियों की गुनगुनी धूप में स्वेटर बुने जाते थे और हर सलाई पर नया किस्सा सुनाया जाता था।*
*कि जब रात में नाख़ून काटना मना था.....जब संध्या समय झाड़ू लगाना बुरा था ।*
*वो ज़माना और था.....*😌
*कि जब बच्चे की आँख में काजल और माथे पे नज़र का टीका जरूरी था।*
*कि जब रातों को दादी नानी की कहानी हुआ करती थी ।*
*कि जब कजिन नहीं सभी भाई बहन हुआ करते थे ।*
*वो ज़माना और था....*😌
*कि जब डीजे नहीं , ढोलक पर थाप लगा करती थी,*
*कि जब गले सुरीले होना जरूरी नहीं था, दिल खोल कर बन्ने बन्नी गाये जाते थे।*
*कि जब शादी में एक दिन का महिला संगीत नहीं होता था आठ दस दिन तक गीत गाये जाते थे।*
*वो ज़माना और था...*😌
*कि जब बिना AC रेल का लंबा सफर पूड़ी, आलू और अचार के साथ बेहद सुहाना लगता था।*
*वो ज़माना और था..*😌
*कि जब चंद खट्टे बेरों के स्वाद के आगे कटीली झाड़ियों की चुभन भूल जाए करते थे।*
*वो ज़माना और था....*😌
*कि जब सबके घर अपने लगते थे......बिना घंटी बजाए बेतकल्लुफी से किसी भी पड़ौसी के घर घुस जाया करते थे।*
*वो ज़माना और था..*😌
*कि जब पेड़ों की शाखें हमारा बोझ उठाने को बैचेन हुआ करती थी।*
*कि जब एक लकड़ी से पहिये को लंबी दूरी तक संतुलित करना विजयी मुस्कान देता था।*
*कि जब गिल्ली डंडा, चंगा पो, सतोलिया और कंचे दोस्ती के पुल हुआ करते थे।*
*वो ज़माना और था...*😌
*कि जब हम डॉक्टर को दिखाने कम जाते थे डॉक्टर हमारे घर आते थे,*
*डॉक्टर साहब का बैग उठाकर उन्हें छोड़ कर आना तहज़ीब हुआ करती थी ।*
*कि जब इमली और कैरी खट्टी नहीं मीठी लगा करती थी।*
*वो ज़माना और था...*😌
*कि जब बड़े भाई बहनों के छोटे हुए कपड़े ख़ज़ाने से लगते थे।*
*कि जब लू भरी दोपहरी में नंगे पाँव गालियां नापा करते थे।*
*कि जब कुल्फी वाले की घंटी पर मीलों की दौड़ मंज़ूर थी ।*
*वो ज़माना और था*😌
*कि जब मोबाइल नहीं धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सरिता और कादम्बिनी के साथ दिन फिसलते जाते थे।*
*कि जब TV नहीं प्रेमचंद के उपन्यास हमें कहानियाँ सुनाते थे।*
*वो ज़माना और था*😌
*कि जब मुल्तानी मिट्टी से बालों को रेशमी बनाया जाता था ।*
*कि जब दस पैसे की चूरन की गोलियां ज़िंदगी मे नया जायका घोला करती थी ।*
*कि जब पीतल के बर्तनों में दाल उबाली जाती थी।*
*कि जब चटनी सिल पर पीसी जाती थी।*
*वो ज़माना और था,*
*वो ज़माना वाकई कुछ और था।*
😌
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